Thursday, September 02, 2021

My Father - Virendra Kumar Singh Chaudhary

This post is about my father, Senior Advocate, Virendra Kumar Singh Chaudhary (02.09.1919 - 29-09-2015) 
 इस चिट्ठी में, मेरे पिता, वीरेन्द्र कुमार सिंह चौधरी, वरिष्ट अधिवक्ता (०२.०९.१९१९ - २९.०९.२०१५) की चर्चा है।
 
My Father - Virendra Kumar Singh Chaudhary - at my official residence at Allahabad

My father, Virendra Kumar Singh Chaudhary, was born on 2 September 1919. He never had time for us; his time was occupied by lawyer’s profession or social service - he was active in RSS. We grew fatherless. There are many instances but there is one that I never forget. 

My father, who was detained under MISA during emergency, coming home after being released on 21-02-1977  

I joined the Allahabad University in 1968 and won the University table tennis singles and doubles championship that year (I won it for the next two years as well). It was held in the AN Jha Hostel. AK Chug from the Moti Lal Nehru Engineering College was my opponent. In doubles, Romi Dhall of AN Jha was my partner. 
Justice SK Verma (later Chief Justice of the Allahabad High Court) was a sports lover. He was the Chief guest for the occasion. He enjoyed the evening. Over dinner, he informed his sons about the interesting match that he had witnessed. They knew us well. They informed Justice Verma about my father, whom he knew very well. 
The next day, my father was surprised, to be summoned in Justice Verma’s chamber. He was further surprised by what fell from Justice Vema’s lips. 
In the evening, my father asked my mother, if I was in the University and a good table tennis player. On her confirmation, he realised that I was a big boy, was in the University, and was a good table tennis player. Well, you can imagine, how much time he gave us.

Allahabad High Court Bar Association honours my father and throws dinner in his honour after his release

My father neither had time for us, nor he ever helped us in anything. He was not like normal fathers that my friends had, who spent their time with them and did lot for them. 
It is only during emergency that I regularly saw him on every Sunday in jail or thereafter when he was released. I was already a lawyer and we used to go to courts together. 
While we were growing up, we could never understand him but slowly it became clear to me. He wanted us to prove ourselves, stand on our feet, and unconsciously guided us with the exemplary life that he led. Now, I understand my father, his principles and appreciate them. He taught us purpose of life - not by preaching but by example, the way he lived.
 
Rajju Baiya greeting my father with sweets on his 70th birthday

I always got more respect, more recognition, as his son, rather than any achievement, any position I have ever held. People assign same qualities, same principles to me as they saw in my father – even though I may not deserve them. 
 
There is a Trust in my parents name. On this link of the website of the Trust, there is his life sketch. It also has something about our heritage, my mother and Rajju Bhaiya, with whom we had family relationship.
१९५० दशक के अन्त में या फिर १९६० दशक के शुरू में लिया गया चित्र। मेरी मां - बायें से दूसरी कुर्सी पर बैठी हैं। उनके दाहिने तरफ जिया जी (रज्जू भैइया की मां) फिर मेरे पिता बैठे हैं। पीछे खड़े लोगों में सबसे दाहिने यतीन्द्र सिंह (रज्जू भैइया के सबसे छोटे भाई और जिनके नाम पर मेरा नाम रखा गया), बीच में मेरे पिता के चचेरे भाई राजवर्धन सिंह (इनकी बेटी सीमा, कैबिनट मंत्री मुख्र्तार अब्बास नक्वी को ब्याही हैं, वे उस समय हमारे साथ रहते थे), सबसे बायें मेरे पिता के एक और चचेरे भाई खड़े हैं। हमारे साथ, पिता की दो ममेरी बहनें भी रहती थीं उनमे से एक सबसे बायीं कुर्सी पर और दूसरी, जमीन पर, सबसे बायें बैठी हैं। उनके बाद, बायें से दाहिने - मैं, मेरे बड़ा भाई, और मेरी बड़ी बहन जमीन पर बैठीं हैं।

मेरे पिता, वीरेंद्र कुमार सिंह चौधरी, का जन्म २ सितंबर १९१९ को हुआ था। उनका समय, उनके वकालत पेशे या समाज सेवा के लिए समर्पित था। वे आरएसएस के सदस्य थे। हम उनके बिना ही बड़े हुए। मेरे जीवन कई वाकया हुऐ पर एक ऐसा, जिसे मैं कभी नहीं भूल पाता।
 
भारत के मुख्य न्यायाधीक्ष राम स्वरूप पाठक और उनकी पत्नी के साथ

मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में, १९६८ में, दाखिला लिया और उस वर्ष विश्वविद्यालय की टेबल टेनिस की एकल और युगल प्रतियोगिता जीती (मैंने इसे अगले दो साल भी जीता)। इसका आयोजन विश्वविद्यालय के, अमरनाथ झा छात्रावास में था। मोती लाल नेहरू इंजीनियरिंग कॉलेज के, एके चुग, फाइनल में मेरे विपक्ष में थे। डबल्स में, अमरनाथ झा छात्रावास के रोमी ढाल मेरे पार्टनर थे। 
न्यायमूर्ति एसके वर्मा (बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश) खेल प्रेमी थे। इस अवसर पर, वे मुख्य अतिथि थे। उन्होंने शाम का लुत्फ उठाया। रात के खाने के समय, उन्होंने अपने बेटों को शाम खेल के बारे में बताया, जो हमें अच्छी तरह से जानते थे। उनके बेटों ने, उन्हें मेरे पिता के बारे में बताया, जिन्हें वे अच्छी तरह जानते थे। 
अगले दिन, मेरे पिता को आश्चर्य हुआ, जब उन्हें न्यायमूर्ति वर्मा के कक्ष में बुलाया गया। उन्हें और अधिक आश्वर्य न्यायमूर्ति वर्मा की बात से हुआ। 
शाम को, मेरे पिता ने, मेरी मां से पूछा कि क्या मैं विश्वविद्यालय में पढ़ता हूं और टेबल टेनिस का अच्छा खिलाड़ी हूं। मां के हामी भरने पर, उन्हें पता चला कि मैं बड़ा हो गया हूं, विश्वविद्यालय में पढ़ता हूं, और एक अच्छा खिलाड़ी भी हूं।इससे, आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उन्होंने हमें कितना समय दिया। 

भारत के मुख्य न्यायाधीक्ष राजेन्द्र बाबू के साथ

मेरे पिता के पास न तो हमारे लिए समय था और न ही उन्होंने कभी हमारी मदद की। वे मेरे दोस्तों के पिताओं की तरह, सामान्य पिता नहीं थे, जिन्होंने मेरे दोस्तों के साथ अपना समय बिताया और उनके लिए बहुत कुछ किया। केवल आपातकाल के दौरान ही, मैंने उन्हें नियमित रूप से, हर रविवार को जेल में मिला। उनके रिहा होने के बाद हम साथ-साथ कोर्ट जाने लगे।

बड़े होते समय, हम उन्हें कभी समझ नहीं पाए। लेकिन धीरे-धीरे, मुझे समझ में आने लगा। वे चाहते थे कि हम खुद को साबित करें, अपने पैरों पर खड़े हों, और वे पीछे से अपने सिद्धन्तों, अपने आचरण से हमें सिखाते रहे। 
भारतीय जनता पार्टी की जब पहली बार सरकार बनी तब मेरे पिता उसके महाधिवक्वता बने। यह चित्र पद का कार्यभार ग्रहण करते समय की है।

अपने जीवन की शाम में, मैं अपने पिता, उनके सिद्धांतों को समझने लगा हूं और उनकी सराहना करता हूं। उन्होंने हमें जीवन का अर्थ - उपदेश से नहीं, बल्कि जी कर, जीने के अर्थ बताया। 

मुझे हमेशा उनके बेटे के रूप में अधिक सम्मान, अधिक पहचान मिली, न कि किसी काम या पद पर रहने से मिली। लोग हमेशा मुझे - वही गुण, वही आदर्श, वही सिद्धांत देते हैं - जो मेरे पिता के थे। भले ही, मैं उसके काबिल न हो।

 मेरे पिता की ७०वीं सालगिरह पर,उनके नाती, पोते - उनके सम्मान में कविता पढ़ते हु़ए
 
मेरे माता-पिता के नाम पर एक न्यास स्थापित है। उसकी इस लिंक पर, उनका जीवन रेखाचित्र है। इसी लिंक पर, उनके अतिरिक्त - हमारी विरासत, मेरी मां, और रज्जू भैया (जिनका हमारे परिवार के साथ गहरा संबन्ध था) के बारे मे भी लेख है।
 २००१ की दीवाली पर हम सब - मेरी बड़ी बहन, मेरा बड़ा भाई, और मैं  - अपने जीवन साथियों और अपने पिता के साथ

तुम्हारे बिना
।। 'चौधरी' ख़िताब - राजा अकबर ने दिया।। बलवन्त राजपूत विद्यालय आगरा के पहले प्रधानाचार्य।। मेरे बाबा - राजमाता की ज़बानी।। मेरे बाबा - विद्यार्थी जीवन और बांदा में वकालत।। बाबा, मेरे जहान में।। मेरे नाना - राज बहादुर सिंह।। बसंत पंचमी - अम्मां, दद्दा की शादी।। अम्मा।। My Father - Virendra Kumar Singh Chaudhary।।  दद्दा (मेरे पिता)।। नैनी सेन्ट्रल जेल और इमरजेन्सी की यादें।। RAJJU BHAIYA AS I KNEW HIM।। रक्षाबन्धन।। जीजी, शादी के पहले - बचपन की यादें ।  जीजी की बेटी श्वेता की आवाज में पिछली चिट्ठी का पॉडकास्ट।। दिनेश कुमार सिंह उर्फ बावर्ची।। GOODBYE ARVIND।।

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