Tuesday, May 05, 2020

दिनेश कुमार सिंह उर्फ़ दद्दा - बावर्ची

यह पोस्ट,  मेरे ममेरे भाई, दिनेश कुमार सिंह की कुछ यादें हैं।



१९७२ में,  ऋषिकेश मुखर्जी की बनायी फिल्म 'बावर्ची' आयी थी। क्या आपको उसकी याद है या नहीं! चलिये, मैं दिला देता हूं।

यह फिल्म, १९६६ में, बांगला में बनी फिल्म 'गाल्पा होलेओ सात्यी' से प्रेरित थी। इसकी कहानी शर्मा परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है जो कि 'शान्ति निवास' घर में रहते हैं। केवल घर का ही नाम शांन्ति है पर वहां अशान्ति का वास है। इस परिवार के मुखिया, एक सनकी दादा जी हैं। परिवार के  सदस्यों में इतनी अशान्ति है कि वहां कोई रसोइया रुक नहीं पाता। यह बात, इतनी फैल जाती है कि वहां कोई खाना बनाने वाला नौकरी नहीं करना चाहता। तब वहां पर एक दिन रघु (जिसकी भूमिका राजेश खन्ना ने निभायी है) नाम का एक युवक खाना बनाना शुरू करता है। वह - परिवार की चुनौती पर खरा उतरता है; सबकी सहायता करता है; पारिवारिक तकरार को खत्म करता है; और परिवार को एकजुट कर - उनकी आंख का तारा बन जाता है। 

क्या आप, किसी ऐसे व्यक्ति को वास्तविक जीवन में जानते हैं? मैं तो जानता हूं। चलिये, आपको बता भी देता हूं। 

सन १९६४ में, दिन्ने दा सर सुन्दर लाल हॉस्टल में रहने के लिये आये। सन १९६७ में, उन्हें 'A'  बलॉक में अलग कमरा मिल गया था। यह चित्र, उसी समय का, उन्हीं के कमरे के सामने का है। 

नाम है - दिनेश कुमार सिंह (१५ जून, १९४६ – ३ मई, २०२०)। शायद, भगवान को कुछ मदद चाहिये थी, इसी लिये, इसी महीने की तीसरी तारीख को,  ईश्वर ने उन्हें अपने पास बुला लिया।

दिनेश कुमार सिंह, मेरे ममेरे भाई थे। हम उन्हें दिन्ने दा बुलाते थे। वे न केवल मेरे बड़े भाई थे, बल्कि उन सब के लिए भी, जो उनके संपर्क में आया। उन्होंने, सभी की, निःस्वार्थ भाव से मदद की। इसीलिये सब लोग, चाहे वे उनसे बड़े हों या छोटे,  उन्हें दद्दा नाम से बुलाते थे।  उन्होंने, कई बार, मेरी और मेरी पत्नी की मदद, बिना मांगे की - हम दोनो उनके ऋणी भी और आभारी भी।

साल २००८ में, मुझे दिल का दौरा पड़ा, हार्ट बाई-पास की शल्यचिकित्सा करवानी पड़ी। इसमें चार बोतल खून की जरूरत पड़ी। दिल्ली में, खून मिलना, मुश्किल पड़ रहा था। मेरी पत्नी परेशान थीं। दिन्ने दा, मुझे देखने दिल्ली आये पर मेरी पत्नी ने, उनसे खून के लिये नहीं कहा। वे डाइअबीटीज़ से पीड़ित थे। उनका खूून नहीं लिया जा सकता था। लेकिन बातों-बातो, उन्हें पता चल गया कि मेरी पत्नी क्यों परेशान हैं। 

दिन्ने दा, अगले दिन, विवेक महरोत्रा, जो कि हरियाणा काडर के प्रशासनिक अधिकारी थे और अपनी गोद ली बेटी सोनी को साथ लेकर, खून देने के लिये आये। तब तक तीन बोतल खून का इंतज़ाम हो गया था, केवल एक बोतल खून की जरूरत थी। इसलिये विवेक ने तो खून दिया मगर सोनी को खून देने की जरूरत नहीं पड़ी। मैं जब तक अस्पताल में रहा, वे बेनागा रोज शाम को आते थे। नीचे बैठते थे, मेरे साथ जो भी हो उससे मिल कर, बात कर कि क्या कोई जरूरत तो नहीं - पूछ कर ही वापस जाते थे।

वे  हमेशा, सबके जन्मदिन, शादी की सालगिरह याद रखते थे। उन्हें पत्र लिखना, मोबाइल आने के बाद, उस दिन फोन करना, उनकी दिनचर्या का अंग था। लोग भी, इन खास मौके पर, पर उनके फोन का इंतज़ार करते थे। वह खास दिन तब तक पूरा नहीं होता ता जब तक वह उनका फोन ना आ जाये।

गणित विभाग के प्रोफेसर डा. बनवारी लाल शर्मा, मेरी पत्नी के गाइड थे। उन्हें दिल्ली में कुछ काम था। उन्होने मेरी पत्नी से दिन्ने दा का फोन नंबर लेकर, उनसे बात कर, दिल्ली में जाने का प्रोग्राम बनाया। एक दिन रहना था इसके लिये एक छोटा बैग काफी था। 

निश्चित दिन, शर्मा जी, समय से ट्रेन पर पहुंच गये। ट्रेन के चलने का समय हो गया और दिन्ने दा का कहीं पता नहीं। शर्मा जी का दिल घबराने लगा कि अब क्या होगा। जब ट्रेन छूटने में एक मिनट का समय रह गया, तब दिन्ने दा कुली के साथ दिखायी पड़े। कुली के पास पांच सूटकेस थे। जल्दी-जल्दी किसी तरह समान डिब्बे में लादा गया। उनके चढ़ते ही गाड़ी चल दी। जब सांस में सांस आयी तब शर्मा जी ने दिन्ने दा से पूछा कि जब एक दिन के लिये जाना है तब इतना समान क्यों। दिन्ने दा ने कहा,
'लोग पहले बताते नहीं। आखिरी समय पर लोग दिल्ली के काम बताने लगते हैं।  मेरे पास पैकिंग का समय रहता नहीं। मेरा सारा समान पांच सूटकेस में रहता है। मालुम नहीं, किस सूटककेस में क्या है। इसलिये पांचों को ले चलता हूं।' :-) 
यह किस्सा शर्मा जी ने मेरी पत्नी से बताया था। वे हमेशा आखिरी समय पर पहुंचते थे। यदि आप उन्हें खाने पर बुलायें तो वहां पहुंचने वालों में से वे आखिरी व्यक्ति होते थे। मालुम नहीं क्यों, बस इसी बार कुछ जल्दी कर दी।

चित्र में बैठे बायें से - कवयित्री सुभद्रा कुुमारी चौहान के पुत्र विजय चौहान, मेरी मां कृष्णा चौधरी और पीछे खड़े है दिन्ने दा - इलाहाबाद घर के बाहर के बरामदमें में। यह चित्र शायद सन १९८२-८३ का है।

दिन्ने दा बेहतरीन खिलाड़ी थे। वे हर खेल बहुत अच्छा खेलते थे। बाहर खेले जाने वाले खेलों में क्रिकेट, बेडमिंटन, टेबल टेनिस, स्कवॉश, टेनिस, तैराकी और शूटिंग उनके प्रिय खेल थे। घर के अन्दर खेले जाने वालों में शतरंज और कैरम। इन सब में वे सर सुन्दर लाल हॉस्टल का प्रतिनिधित्व तो करते ही थे लेकिन इसके साथ अधिकतर में विश्वविद्यालय का भी। मेरी याददाश्त में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कोई अन्य विद्यार्थी नहीं हुआ, जिसने विश्वविद्यालय को इतने खेलों में प्रतिनिधित्व किया हो।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय और खास तौर से सर सुन्दर लाल होस्टल से उनका अटूट रिश्ता था। मैं चाहूंगा कि उनके नाम पर  सर सुन्दर लाल होस्टल में एक पुरस्कार (अवार्ड)/ मेडल शुृरू किया जाय और उसे हॉस्टल के सोशल फंक्शन के दिन, हॉस्टल के उस लड़के को दिया जाय जो खेल,  पाठ्यक्रमेतर गतिविधिययों (extracurricular activties), और पढ़ाई में सबसे अच्छा हो। शायद, उसकी कसौटी वही हो जैसे कि विशवविद्यालय के लिये चान्सलर मेडल की होती है।

इस पुरस्कार/ मेडल का चुनाव एक चयन समिति करे, जिसमें हॉस्टल के सूपरिन्टेन्न्डेन्ट, विश्विद्यालय का कोई अन्य टीचर और हॉस्टल में रहा कोई पुरा छात्र हो। यदि, इस तरह का कोई मेडल या पुरुस्कार शुरू किया जाता है तो उसमें होने वाले हर साल के खर्चे को, मेरी मां के नाम से बने कृष्णा-वीरेन्द्र न्यास को उठाने में प्रसन्नता होगी। 

भगवान हमेशा ऐसे लोग नहीं बनाता, जो हर किसी की निःस्वार्थ मदद करने के लिये तत्पर रहता हो। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे और उनका जीवन, हम सब को, दूसरों की सहायता करने के लिये प्रेरित करे।

पिछले दशक में - दिन्ने दा, मेरे बेटे के साथ, शायद उसकी शादी के समय

दिन्ने दा से जुड़े अन्य लोगों ने अपनी  श्रद्धांजलि उन्हें अलग-अलग जगह दी हैं। राम निवास चतुर्वेदी (दिन्ने दा के साथ सर सुन्दर लाल हॉस्टेल के साथी) ने  'दद्दा दिनेश कुमार सिंह,एस एस एल, इलाहाबाद', श्वेता सिंह (दिन्ने दा की गोद ली बेटी सोनी की छोटी बहन) ने  फेसबुक में यहां लिखा  है। ये सब और उन पर आयीं टिप्पणियां पढ़ने योग्य हैं। 

कृपया 'Unknown' में टिप्पणी न करें। यदि कुछ मुुश्किल हो रही हो तब टिप्पणी के साथ अपना नाम लिखें और यह भी  लिखें कि आप दिन्ने दा को कैसे जानते हैं। 

यदि आपको टिप्पणी करने में मुश्किल हो रही है तो अपने नाम और आप दिन्ने दा को कैसे जानते हैं के परिचय के साथ, इस ईमेल पर अपनी टिप्पणी भेजें। कृष्णा-वीरेन्द्र न्यास को आपकी तरफ से टिप्पणी करने में  प्रसन्नता होगी।     

24 comments:

  1. अति सुंदर विवरण, पुरूस्कार का प्रस्ताव प्रशंसनीय, छात्रावास के अधीक्षक/वार्डन को प्रयास करना चाहिए, सच्ची श्रृद्धांजलि।

    ReplyDelete
  2. यति भैया - आपने एकदम सही कहा, लगता है भगवान् को मदद की ज़रुरत थी इसीलिए उसने अंकल (दद्दा) को अपने पास बुला लिया. मैं सोनी दी की सबसे छोटी बहन श्वेता हूँ और इस समय बोस्टन में हूँ. हमेशा सबकी मदद के लिए तैयार रहने वाले अंकल वक़्त से पहले चले गए. हमे जब भी इंडिया जाना होता था अंकल का फ़ोन पहले आ जाता था की एयरपोर्ट पर कोई पिक करेगा परेशान मत होना. अपना व्यक्तिगत अनुभव यहाँ शेयर करना चाहूंगी. मुझे वीसा की पेपर वर्क के लिए मेरी मास्टर्स डिग्री की ज़रुरत थी, मेरे लिए बोस्टन से इंडिया जाकर इतनी जल्दी डिग्री ले कर आना संभव नहीं था. मैंने अंकल को फ़ोन किया और २ वीक में मेरी डिग्री यूनिवर्सिटी से इशू हुई और मेरी पास पहुंच गयी.
    आपका सुझाव की उनके नाम पर एक पुरुष्कार आयोजित किया जाए बहुत पसंद आया. कृपया हमें बताएं की इस सुझाव को अमल में लाने के लिए हम क्या कर सकते हैं? जैसा की आपने कहा भगवान् ऐसे लोग हमेशा नहीं बनता, उनकी दूसरों की निश्वार्थ मदद करने की लिगेसी इस अवार्ड से हमेश जीवित रहेगी.
    "लगता है ईश्वर कोई नया जहाँ बसा रहा है, अच्छे लोगों को वक़्त से पहले अपने पास बुला रहा है"

    ReplyDelete
  3. V. nice &interesting containing good suggestion.

    ReplyDelete
  4. अंकल के साथ वो शाम को मूँगफली पार्टी पर ढेर सारी बातें करना, civil lines बाज़ार मैं घूमने के बहाने वो कुछ भी ख़रीदना, कार मैं बेठे बेठे वो शॉपिंग करना, छोटी छोटी बातों पर वो डाँटना, बिना किसी बंधन के जीवन जीना....हर किसी की मदद के लिए हर समय तैयार रहना, निःस्वार्थ मदद करना।
    उनसे बङे, छोटे, उनके हम उम्र, हर किसी के दद्दा थे
    आज उनको जानने वाले बहुत से लोगों के संदेश आये सबके शब्द अलग थे पर अकंल के लिए सबकी भावनाऐ विचार एक थे। सच ही कहा है सबने
    की अंकल की शख़्सियत को बयान करना आसान नहीं है
    नि:स्वार्थ भाव से सब को अपना लेना हर एक का न स्वभाव होता है न हर एक के बस की बात होती है।
    कोई सुख हो, कोई दुख हो , कोई परेशानी हो -दद्दा हाज़िर।
    कोई बीमार है, कहीं शादी है, किसी का एडमिशन कराना है, किसी को कुंभ मेले में जाना है, किसी का गृह प्रवेश है, किसी को ट्रेन का टिकट चाहिए किसी की पारिवारिक समस्या है सब के लिए हाज़िर हर किसी की समस्या उनकी अपनी होती थी।हर किसी को अपने से पहले रखते थे। इतना बड़ा दिल देकर उन्हें भगवान ने भेजा था जिसमें हर किसी के लिए प्यार, अपनापन व मदद थी ,
    बहुत सरल और नेक दिल इंसान,इतना प्यार से बोलते थे कि पहली बार ही अपना बना लेते थे ।
    सच कहा है नही हो सकता
    है ऐसा कोई और संकट मोचन!!!!!
    जहां भी जाते सिर्फ खुशियाँ ही देते थे जो भी उनसे प्यार से मिलता उसी के हो जाते थे उनके बारे में लिखने बैठे तों शब्द और समय दोनों कम पङ जायँ ऐसी शख्सियत थे मेरे अंकल ।
    जाना तो सबको है पर इतनी जल्दी और ऐसे समय पर जायेंगे की उनके चाहने वालों को उनसे मिला भी न सकूं ऐसा नही सोचा था । दुनिया के हर कोने में उनके चाहने वालों की लिस्ट इतनी लम्बी है कि भगवान शायद इतने लोगों के आंसू एक साथ देख नही सकता था इसलिए उसने ऐसा समय चुना। अंकल जहाँ भी रहेंगे उनका प्यार, आशीष हमेशा हम सब पर बना रहे।
    भइया आपने सही कहा भगवान को निःस्वार्थ मदद की जरूरत थी इसलिए उन्होने अंकल को बुला लिया। भगवान भी खुश होंगे अंकल का साथ पाकर।
    उनका आशीर्वाद हम सब पर हमेशा बना रहे 🙏

    ReplyDelete
    Replies
    1. The preceding comment is by Sonali Singh Aka Soni (Late Sri Dinesh Kumar Singh's adopted daughter), referred in the article.

      Delete
  5. This comment has been removed by a blog administrator.

    ReplyDelete
  6. Dadda was unique in himself,such personalities don't appear often in this universe,there can't be a single student of University during those days who didn't know Dadda,I don't remember that smile ever leaving his face.I was in PCB from 1968-75 and met Dadda on so many occasions,even afterwards,we met in many marriage functions,it it hard to believe that Dadda is no more in this world.My heartfelt tributes

    ReplyDelete
  7. दद्दा तो दद्दा ही रहे
    दद्दा को सार्थक किया जीवन भर, देना और देना। प्रेम देना,सहायता देना किस कीमत पर दिल को ले कर। कमल जैसे सुंदर तन से नहीं मन से भी,स्वयं तो सदा खिले ही रहते थे, जो मिले उसे भी खिला दें। हास्टेल के लोगों को जोड़े रहने के लिए एक सूत्र थे जिस माला में सैकड़ों फूल लेकिन सभी के साथ जुड़े। "सूत्रे मणिगणा इव" को सार्थक करते थे दद्दा।
    "पर हित सरिस धर्म नहिं भाई" रामायण में सर्वोच्च धर्म बताया है लेकिन दद्दा न पूजा, न तिलक, न हवन, न माला लेकिन पर उपकार में स्वयं धर्म का रूप थे। यही उनकी इबादत, पूजा सब थी। परम पूज्य रज्जू भैयाके परिवारिक सदस्य और उनके साथ बहुत रहे लेकिन संघ का सेवा भाव जितना उनमें उतरा था ऐसा तो देखा ही नहीं। कितने मुस्लिम उनके मित्र, सलाउद्दीन उनमें एक और अपना अभिन्न ही मानते थे। अब्दुल कासिम क्रिकेटर परम प्रिय। सभी का हित, सहायता, स्मरण, वार्ता उनका जीवन था।
    शादी का कभी सोचा नहीं। बस देवेन्द्र त्यागी उनके अति निकटतम उनसे इस विषय पर मजाक, खिंचाई करते थे। वह हास्टेल को ही परिवार मानते थे। एक और कुंआरे उनके साथ बैठक बाज थे श्री एच सी गुप्ता,आई ए एस,उस समय डी एम इलाहाबाद। दोनों फक्कड़ रोज डी एम रेजीडेंस पर बैडमिंटन और खाना। शराब,नशे से सदा दूर। सब लेते रहें दद्दा दूसरों के नशे से ही नशा ले लेते थे।
    ज्यादा विस्तार हो रहा इसलिए फिर लिखेंगे उनकी खेल प्रतिभा, खेल भावना, अहंकार शून्यता, आदि पर।
    दद्दा आप कैसे हम लोगों से अलग हो सकते हो। इस जीवन में नहीं। सदा हमें अपनी बातों से गुदगुदाते रहेंगे आप‌। शरीर तो जाते हैं प्रेम और स्नेह का शरीर नहीं होता उस रूप में आप सदा रहेंगे।
    राम निवास चतुर्वेदी

    ReplyDelete
  8. कृपया 'Unknown' में टिप्पणी न करें। यदि कुछ मुुश्किल हो रही हो तब टिप्पणी के साथ अपना नाम लिखें, जैसा श्री राम निवास चतुर्वेदी ने किया है। इससे स्वर्गीय श्री दिनेश कुमार सिंह के मित्रों को पता चलेगा कि आप कौन हैं।

    ReplyDelete
    Replies
    1. यदि आपको टिप्पणी करने में मुश्किल हो रही है तो अपने नाम और आप दिनेश कुमार सिंह को कैसे जानते हैं के परिचय के साथ
      इस ईमेल पर अपनी टिप्पणी भेजें।

      Delete
  9. This is written by Sonali Singh Aka Soni(Dadda's daughter).

    ReplyDelete
  10. The post on 6th of May,at 5.30 pm was from Anil Kumar Misra,ex inmate of PCB Hostel

    ReplyDelete
  11. यह टिप्पणी दिनेश कुमार सिंह के बचपन के मित्र कैलाश मेहरा ने, इस लेख पर करने को भेजी है। यह उनकी तरफ से की जा रही है।
    'क्या भूलूं क्या याद करूं’ भूलने के लिये तो कुछ भी नहीं है सिर्फ यादें और यादें ही रह गयी हैं।
    लल्लू, दिनेश और मैं, बहुत बेबाकी से बात करते थे। एक बार, हम तीनों, मेरे घर पर थे। दिनेश ने कहा मेरी इच्छा है कि मैं कहीं भी मरूं, मेरी अत्येष्टि बांदा में, केन नदी के घाट पर करना। लल्लू ने मज़ाकिया लहजे ने कहा, 'देखो अगर तुम बांदा में मरे तो ठीक है लेकिन अगर बांदा के बाहर मरे तो हमारा बूता नहीं है कि इतने मोटे एक क्विटंल के आदमी को वहां से बांदा लायें। लाने में रूपया पैसा भी खर्च होगा। तुम ऐसा करो कि कैलाश और मुझे ५-५ हज़ार अभी एडवांस कर दो। एम्बुलेंस में लायेंगे, लकड़ी में खर्च होगा, हवन भी होगा, कहा के करेंगे। रूपया अभी दे दो, तुम भी बेफिक्र और हम भी बेफिक्र।'
    दिनेश हंसते हुये बोला, 'क्या गारंटी है कि है पहले मैं मरूंगा, अगर तुम में से कोई पहले चला गया तब तो मेरा एडवांस तो डूब जायेगा । मैं यह रिस्क नहीं लूंगा।'
    वह कभी भी किसी बात का बुरा नहीं मानता था। किसी बात की गारन्टी तो किसी की भी नहीं है । कोई पहले, कोई बाद में है।
    'देखी जमाने की यारी, बिछडे समी बारी-बारी।' शेष फिर कभी।
    ६ मई को शुद्धिहवन पर, जो कुरता मैंने पहना हुआ था वह दिनेश ने, नौ साल पहले मेरे जन्मदिन पर दिया था।
    कैलाश मेहरा

    ReplyDelete
  12. पूज्यनीय बाबा स्व.श्री राजबहादुर सिंह जी की डायरी अनुसार
    दिनेश
    १, जन्मतिथि- शनिवार,आषाढ़बदी,पड़ीवा सं२००३/ तारीख १५/०६/१९४६
    १०/०७/५२- आज दिनेश Govt girls college के दर्जा २ में भर्ती किया गया।
    जून १९५४ से - दिनेश पढ़ने में तेज है,अपने दर्जे में अव्वल आता है। अध्यापिकाएं उसे बहुत प्यार करती हैं।
    शतरंज व कैरम बहुत अच्छा खेलता है।
    सच्चा है। निर्भय है।
    दिनेश खूब अच्छा तैरता है। दिनेश का रंग गोरा है। सिनेमा के इश्तिहार व डाक टिकट संग्रह करने का शौक है।
    अपनी चीज़ किसी को नहीं देता है। शेर की कहानी ज़्यादातर पसंद करता है।उसके लिए 'बालबोध'मासिक पत्रिका मंगवाया जाता है, उसे वह चाव से पढ़ता है। पहेलियों के उत्तर भेजने में दो बार उसे पुस्तकें इनाम में मिली हैं। अपनी किताबें बहुत संभाल कर रखता है। सफाई का बहुत ख्याल रखता है।सदा सच बोलता है।
    १७/०८/५७ - दिनेश सलाइयों पर ऊन से सीधे उल्टे फंदे बुन लेता है। तैरना अच्छी तरह आता है,नदी पार कर लेता है। साईकिल चलाता है बिना साईकिल के कहीं भेजना मुश्किल है।
    १९/०६/६१- आज दिनेश की १५वीं वर्षगांठ मनाई गई।सावी ने हलुवा खिलाया। नूर मियां (नाई) ने मशीन से दाढ़ी बनाई भौजी ने १रुपये का सीधा दिया।
    आगे वृतांत नहीं है, संभवत: बड़दा बिट्टी बुआ के पास इलाहाबाद चले गए होंगे। हमारे फूफाजी स्व.श्री वीरेन्द्र कुमार सिंह जी को भी लोग दद्दा कहते थे तो सुविधा के लिएबड़दा, छोटदा (रक्कू दा) चलन में आया।
    -: Pradeep,
    The last emperor
    Dadda dynasty


    ReplyDelete
  13. This comment is by Abhay Rathore (Sonali Singh Aka Soni’s older son):
    I love Nana most. He was an inspiration to me in every field like sports, studies, love and care for everyone.
    He loved me and my younger brother Kanha a lot. Nana notice all my mistakes daily and at the end of the day he sit with me to go over those mistakes. He would say "Abhay these all are your mistake that you made today". This made me realize that he only wanted happiness n success for me. Nana visited us in Agra every year in My and Kanha’s birthday.
    Nana was a great personality, he never thought bad of anyone.
    He helped lots of people in his life. The second day after his passing away, a program was held in his university to give respect to the great personality, this showed how he was a legend for all he met in his life
    May God Bless His Soul.

    ReplyDelete
  14. यह टिप्पणी दिनेश कुमार सिंह के बचपन के मित्र विवेक मेहरोत्रा (जिनका ज़िक्र इस पोस्ट पर है) की बड़ी बहन श्रीमती वीणा मेहरोत्रा ने, इस लेख पर करने को भेजी है। यह उनकी तरफ से की जा रही है। वे दिनेश कुमार सिंह से भी उम्र में बड़ी हैं।

    मेरे मुंह बोले भाई दद्दा, अब लगता है कि तुम्हारे जैसे अति सरल और सहज व्यक्ति कितने दुर्लभ हैं। सारी दुनिया के तुम दद्दा और सबके मन में तुम्हारी मधुर यादें। 'ऐसी करनी कर चले, हम हंसे, जग रोए।'
    हर अवसर पर जरुर याद आओगे। जहां हो वहां भी खुशियां बिखेर रहे होंगे। सुखी और प्रसन्न रहो।
    तुम्हे नमन
    वीणा

    ReplyDelete
    Replies
    1. ऊपर की टिप्पणी श्रीमती वीणा मेहरोत्रा ने की है। उन्होंने कुछ और भी लिखा है। नीचे की टिप्पणी उनकी तरफ से।
      मुझसे तीन साल छोटा था, मेरा मुंह बोला भाई दद्दा। उसका जन्मदिन १५ जून और मेरा १६ जून को था। एक बार वह बोला, दीदी "मैं आपसे बड़ा हूं।"
      मैंने कहा कि इसीलिए तो मैं तुम्हें दद्दा कहती हूं। तो वह खूब हंसा।
      इतने सरल और सहज दद्दा का कितना दुर्लभ व्यक्तित्व था कि उसे शब्दों में बांधना मुश्किल है।
      देश-विदेश में उसके इतने अधिक मित्र और परिचित थे और सभी से उसके बहुत मधुर संबंध, सब की मदद को हमेशा तैयार। 'अजातशत्रु 'था दद्दा। सबको रुला कर इतनी जल्दी चला गया।
      'ऐसी करनी कर चले हम हंसे जग रोए।'
      उस जहां में भी तुम खुशियां बिखेर रहे होंगे। अच्छे लोगों की दोनों ज़हां में जरूरत है।
      जहां रहो खूब खुश रहो प्रसन्न रहो।
      नमन
      वीणा

      Delete
  15. This comment is on behalf of Vivek Mehrotra (referred to in the post), a childhood friend of Dinesh Kumar Singh.

    Dadda has moved on. Glowing tributes and adjectives are inadequate to describe his persona. One thought about Dadda that keeps coming to mind is his selfless nature, always helping others. He will be missed as a person who was epitome of decency, service and kindness. Dadda was a rare person who had conquered personal ambition and he was selflessness personified. I think persons like Dadda were on the mind of Narsi Bhagat when he wrote,
    "वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीड परायी जाणे रे।
    पर दुःखे उपकार करे तो ये, मन अभिमान न आणे रे।"
    We only sing this bhajan, but Dadda lived it; and he was not even religious. In my long association with him, I had never ever heard Dadda boast about helping others. Not even once.
    When I last spoke with him a day or two before he moved to the hospital, there was an unusual pathos in his voice. I was unsettled. Did he have a premonition that this was the end? There are many anecdotes, incidents and memories associated with Dadda but their narration will have to wait for some time. Recounting these now may become too flippant or enervating. All our birthdays and anniversaries will now have one inevitable congratulatory phone call less; we shall now have to bear this sound of silence. RIP Dadda.
    Vivek Mehrotra

    ReplyDelete
  16. दद्दा का अर्थ होता है दादा की तरह पालन करने वाला,प्यार करने वाला।दद्दा का अर्थ बड़ भाई भी होता है।सर सुन्दर लाल छात्रावास के 1964 से 2020 तक के लोग उन्हें दद्दा कह कर सम्मान प्यार देते थे।अपने साथियों के जन्म दिन, विवाह तिथि पर साठ सत्तर अस्सी के दशक में पोस्ट कार्ड डालते थे तत्पश्चात फोन करना नहीं भूलते थे।

    अर्जुनसिंह जी मुख्यमंत्री मध्यम प्रदेश और केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री के दामाद हैं बी पी सिंह,प्रिन्स आप सिंगरौली, दद्दा उन प्रिंस को सर सुंदर लाल छात्रावास लाये।हास्टेल के क्रिकेट सितारे थे,फास्ट बोलर,स्विंग मास्टर। कैसे मोहिंदर अमरनाथ की दिल्ली यूनिवर्सिटी टीम के एम सी सी ग्राउंड पर विज्जी ने विकेट चटकाये थे।हमारी दद्दा की खूब बातें होती थीं।दद्दा का अर्जुन सिंह दामाद जैसा सम्मान करते थे।उनका घर खुला रहता था दद्दा के लिए। लेकिन क्या मजाल कि कोई काम करवाने को कहें। अर्जुनसिंह जी हास्टेल आते रहते थे।

    दद्दा को कभी गुस्सा नहीं आता था,किसी से नाराज़ नहीं हुये,कभी झूठ नहीं बोला,कभी धन के बारे में सोचा ही नहीं,।काम सदा उनसे दूर रहता था। रामचरितमानस में "काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ" कहा है। गीता में भी

    "त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।

    काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्रयं त्यजेत"

    उनमें क्रोध कभी देखा ही नहीं,लोभ किया ही नहीं,काम की न बातें,न मजाक न शादी न महबूबा।यदि यह सब नरक के मार्ग बताये तो दद्दा तो इनके विपरीत ही रहे तो स्वर्ग के अधिकारी ज्ञात होते हैं।

    दद्दा को तीर्थ,पूजा,पाठ,तिलक,माला से कोई मतलब नहीं लेकिन हर इंसान को भगवान की तरह ही प्रसन्न रखते थे।"सर्व भूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि" पूरा उनमें उतरता था।

    दूसरों की सहायता उनका कष्ट कैसे दूर हो इसके लिए अपने सम्पर्क सूत्रों का इस्तेमाल करते थे।सम्पर्क पूरे देश में इलाहाबाद के नाते थे। प्रशासन, पुलिस,न्याय,कर सभी में सर्वोच्च पदों पर दस बीस नहीं सैकड़ों लोग थे जो दद्दा को सर माथे पर रखतें थे।उनके स्वार्थ रहित प्रेम के स्वरूप के कारण।

    लगता है मानस की बात सही है।

    "परहित बस जिनके मन माहीं।

    तिन्ह कहुं जग दुर्लभ कछु नाहीं।।

    उनका धर्म ही परहित था।

    अभी बहुत कुछ उनके खेल,एडवोकेट शिप,जजों से मित्रता,आवास में सामान स्टोर सा भरा होना उसी के बीच हो जाना पर लिखना बाकी।

    ऐसे फकीर कहो,फक्कड़ कहो,संत कहो दद्दा देते ही रहे ज़िंदगी भर कमाई केवल दोस्ती,मित्रता।

    राम निवास चतुर्वेदी

    ReplyDelete
  17. दद्दा का अर्थ होता है दादा की तरह पालन करने वाला,प्यार करने वाला।दद्दा का अर्थ बड़ भाई भी होता है।सर सुन्दर लाल छात्रावास के 1964 से 2020 तक के लोग उन्हें दद्दा कह कर सम्मान प्यार देते थे।अपने साथियों के जन्म दिन, विवाह तिथि पर साठ सत्तर अस्सी के दशक में पोस्ट कार्ड डालते थे तत्पश्चात फोन करना नहीं भूलते थे।

    अर्जुनसिंह जी मुख्यमंत्री मध्यम प्रदेश और केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री के दामाद हैं बी पी सिंह,प्रिन्स आप सिंगरौली, दद्दा उन प्रिंस को सर सुंदर लाल छात्रावास लाये।हास्टेल के क्रिकेट सितारे थे,फास्ट बोलर,स्विंग मास्टर। कैसे मोहिंदर अमरनाथ की दिल्ली यूनिवर्सिटी टीम के एम सी सी ग्राउंड पर विज्जी ने विकेट चटकाये थे।हमारी दद्दा की खूब बातें होती थीं।दद्दा का अर्जुन सिंह दामाद जैसा सम्मान करते थे।उनका घर खुला रहता था दद्दा के लिए। लेकिन क्या मजाल कि कोई काम करवाने को कहें। अर्जुनसिंह जी हास्टेल आते रहते थे।

    दद्दा को कभी गुस्सा नहीं आता था,किसी से नाराज़ नहीं हुये,कभी झूठ नहीं बोला,कभी धन के बारे में सोचा ही नहीं,।काम सदा उनसे दूर रहता था। रामचरितमानस में "काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ" कहा है। गीता में भी

    "त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।

    काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्रयं त्यजेत"

    उनमें क्रोध कभी देखा ही नहीं,लोभ किया ही नहीं,काम की न बातें,न मजाक न शादी न महबूबा।यदि यह सब नरक के मार्ग बताये तो दद्दा तो इनके विपरीत ही रहे तो स्वर्ग के अधिकारी ज्ञात होते हैं।

    दद्दा को तीर्थ,पूजा,पाठ,तिलक,माला से कोई मतलब नहीं लेकिन हर इंसान को भगवान की तरह ही प्रसन्न रखते थे।"सर्व भूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि" पूरा उनमें उतरता था।

    दूसरों की सहायता उनका कष्ट कैसे दूर हो इसके लिए अपने सम्पर्क सूत्रों का इस्तेमाल करते थे।सम्पर्क पूरे देश में इलाहाबाद के नाते थे। प्रशासन, पुलिस,न्याय,कर सभी में सर्वोच्च पदों पर दस बीस नहीं सैकड़ों लोग थे जो दद्दा को सर माथे पर रखतें थे।उनके स्वार्थ रहित प्रेम के स्वरूप के कारण।

    लगता है मानस की बात सही है।

    "परहित बस जिनके मन माहीं।

    तिन्ह कहुं जग दुर्लभ कछु नाहीं।।

    उनका धर्म ही परहित था।

    अभी बहुत कुछ उनके खेल,एडवोकेट शिप,जजों से मित्रता,आवास में सामान स्टोर सा भरा होना उसी के बीच हो जाना पर लिखना बाकी।

    ऐसे फकीर कहो,फक्कड़ कहो,संत कहो दद्दा देते ही रहे ज़िंदगी भर कमाई केवल दोस्ती,मित्रता।

    राम निवास चतुर्वेदी

    ReplyDelete
  18. दिनेश कुमार सिंह बहुत अच्छा टेबल टेनिस खेलते थे। यह टिप्पणी उनके टेबल टेनिस के साथी अभिजित राय की तरफ से की जा रही है।
    मैं जब १४-१५ साल का था तब दद्दा से पहली बार मिला था। उनके जैसे प्यारे और प्यार बाटने वाले व्यक्ति के आस-पास होना ही एक शान की बात होती थी।
    याद आता है स्टार क्लब का टेबल टेनिस टूर्नामेंट का फाइनल। इस फाइनल मैच में दद्दा ने मेरी प्यार से धुलाई की थी। दद्दा फट्टे से, बहुत ही कठिन और चालाक तरीके से खेलते थे।।
    उनसे, मेरी आखरी मुलाकात करीब १५ साल पहले श्यामा चरण जी के दिल्ली स्थित एमपी निवास पर हुई थी। उस रात को, उनके और मेरे एक दूसरे मित्र प्रदीप कानोडिया के साथ खूब रमी खेली गयी थी।
    दद्दा, एक अतुलनीय इंसान थे। प्यार के सिकंदर, कहां चले गये, मेरे दद्दा?
    अभिजीत राय

    ReplyDelete
  19. Remembering Dadda
    It is not very often that some ones demise saddens so much and you keep thinking about him days thereafter despite your routine problems and issues. More so when the person who passed away was someone whom you hadn't met for ages.
    Dadda was one his kind much senior , i cannot claim to be his friend. Though I certainly was a beneficiary of his kindness many years ago and that was when I was beginning to know him.
    I needed a reference letter from an IAS officer for some passport related work and some one introduced me to Dadda. The very next day he took me to an IAS friend and my work was done.
    He always had a smile on his face.
    In Feb.2018 I met him after about 30 years and at a wedding at New Delhi. He was wheel chair bound , I introduced myself - he hadn't forgotten. His smile was so endearing. My last memory of him is also with that smile, though wheel chair bound. A man who was always happy and spread happiness amongst all he met.
    I have discussed with my senior colleagues ( actually elder brothers) Abhijeet Roy C A New Delhi and Deepak Singh Dy. Commissioner VAT, Lucknow about organising a TT tournament in Dadda's memory in New Delhi and in Allahabad. Will work on the same to make it happen.
    Keep smiling Dadda wherever you are. You have no idea how many people smiled because of you.
    Lovi Mehrotra
    17/05/2020

    ReplyDelete
  20. An institution. Knew him since 1971. Had joined Allahabad University and met him at Squash Court. We played TT also at Sir Sunder Lal hostel. An outstanding player of Tennis,Squash,TT, Badminton. A true sportsman with sportsman spirit. Always helpful.He knew students of various age groups. A very popular person. Very loving and used to remain in touch and met whenever he came to Lucknow. Last meeting was in 2019, when he was not keeping very well. He sent me a copy of letter which I had written to him 30 years back. Used to maintain old correspondence.A very warm hearted person. Had very good relations in bureaucracy. Best thing about Dadda was that he used to maintain relations. Gem of a man and should be awarded and felicitated by AU posthumously. Will be remembered by generations. Om Shanti. A K Jain ex DGP UP.

    ReplyDelete

AMU Case - Sixth & seven (a)th Point

In 1981, amendments were made in the Aligarh Muslim University Act broadly providing the University to mean the educational institution of t...